सभापर्व की प्रमुख घटनाएँ
सभापर्व में मयासुर द्वारा युधिष्ठिर के लिए सभाभवन का निर्माण, लोकपालों की भिन्न-भिन्न सभाओं का वर्णन, युधिष्ठिर द्वारा राजसूय करने का संकल्प करना, जरासन्ध का वृत्तान्त तथा उसका वध, राजसूय के लिए अर्जुन आदि चार पाण्डवों की दिग्विजय यात्रा, राजसूय यज्ञ, शिशुपालवध, द्युतक्रीडा, युधिष्ठिर की द्यूत में हार और पाण्डवों का वनगमन वर्णित है।
सभा-भवन का निर्माण
मय दानव सभा-भवन के निर्माण में लग गया। शुभ मुहूर्त में सभा-भवन की नींव डाली गई तथा धीरे-धीरे सभा-भवन बनकर तैयार हो गया जो स्फटिक शिलाओं से बना हुआ था। यह भवन शीशमहल-सा चमक रहा था। इसी भवन में महाराज युधिष्ठिर राजसिंहासन पर आसीन हुए।
राजसूय यज्ञ
कुछ समय बाद महर्षि नारद सभा-भवन में पधारे। उन्होंने युधिष्ठिर को राजसूय यज्ञ करने की सलाह दी। युधिष्ठिर ने कृष्ण को बुलवाया तथा राजसूय यज्ञ के बारे में पूछा।
जरासंध-वध
श्रीकृष्ण ने कहा कि राजसूय-यज्ञ में सबसे बड़ी बाधा मगध नरेश जरासंध है, क्योंकि उसने अनेक राजाओं को बंदी बना रखा है तथा वह बड़ा ही निर्दयी है। जरासंध को परास्त करने के उद्देश्य से कृष्ण, अर्जुन और भीम को साथ लेकर, ब्राह्मण के वेश में सीधे जरासंध की सभा में पहुँच गए। जरासंध ने उन्हें ब्राह्मण समझकर सत्कार किया, पर भीम ने उन्हें द्वंद्व-युद्ध के लिए ललकारा। भीम और जरासंध तेरह दिन तक लड़ते रहे। चौदहवें दिन जरासंध कुछ थका दिखाई दिया, तभी भीम ने उसे पकड़कर उसके शरीर को चीरकर फेंक दिया। श्रीकृष्ण ने जरासंध के कारागार से सभी बंदी राजाओं को मुक्त कर दिया तथा युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में शामिल होने का निमंत्रण दिया और जरासंध के पुत्र सहदेव को मगध की राजगदद्दी पर बिठाया।
भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव चारों दिशाओं में गए तथा सभी राजाओं को युधिष्ठिर की अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया। देश-देश के राजा यज्ञ में शामिल होने आए। भीष्म और द्रोण को यज्ञ का कार्य-विधि का निरीक्षण करने तथा दुर्योधन को राजाओं के उपहार स्वीकार करने का कार्य सौंपा गया। श्रीकृष्ण ने स्वयं ब्राह्मणों के चरण धोने का कार्य स्वीकार किया।
शिशुपाल-वध
यज्ञ में सबसे पहले किसकी पूजा की जाए, किसका सत्कार किया जाए, इस पर भीष्म ने श्रीकृष्ण का नाम सुझाया। सहदेव श्रीकृष्ण के पैर धोने लगा। चेदिराज शिशुपाल से यह देखा न गया तथा वह भीष्म और कृष्ण को अपशब्द कहने लगा। कृष्ण शांत भाव से उसकी गालियाँ सुनते रहे। शिशुपाल कृष्ण की बुआ का लड़का था। कृष्ण ने अपनी बुआ को वचन दिया था कि वे शिशुपाल के सौ अपराध क्षमा करेंगे। जब शिशुपाल सौ गालियाँ दे चुका तो श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र चला दिया तथा शिशुपाल का सिर कटकर ज़मीन पर गिर गया। शिशुपाल के पुत्र को चेदि राज्य की गद्दी सौंप दी गई। युधिष्ठिर का यज्ञ संपूर्ण हुआ।
दुर्योधन शकुनि के साथ युधिष्ठिर के अद्भुत सभा-भवन को देख रहा था। वह एक ऐसे स्थान पर पहुँचा जहाँ स्थल भी जलमय लगता था। दुर्योधन अपने कपड़े समेटने लगा। द्रौपदी को यह देखकर हँसी आ गई। कुछ दूरी पर पारदर्शी शीशा लगा हुआ था। दुर्योधन का सिर आईने से टकरा गया। वहाँ खड़े भीम को यह देखकर हँसी आ गई। कुछ दूर आगे जल भरा था, पर दुर्योधन ने फर्श समझा और चलता गया। उसके कपड़े भीग गए। सभी लोग हँस पड़े। दुर्योधन अपने अपमान पर जल-भुन गया तथा दुर्योधन से विदा माँगकर हस्तिनापुर आ गया।
द्युतक्रीड़ा (जुआ खेलना)
दुर्योधन पांडवों से अपने अपमान का बदला लेना चाहता था। शकुनि ने दुर्योधन को समझाया कि पांडवों से सीधे युद्ध में जीत पाना कठिन है, अतः छल-बल से ही उन पर विजय पाई जा सकती है। शकुनि के कहने पर हस्तिनापुर में भी एक सभा-भवन बनवाया गया तथा युधिष्ठिर को जुआ खेलने के लिए बुलाया गया। दुर्योधन की ओर से शकुनि ने ओर पासा फेंका। शकुनि जुआ खेलने में बहुत निपुण था। युधिष्ठिर पहले रत्न, फिर सोना, चाँदी, घोड़े, रथ, नौकर-चाकर, सारी सेना, अपना राज्य तथा फिर अपने चारों भाइयों को हार गया, अब मेरे पास दाँव पर लगाने के लिए कुछ नहीं है। शकुनि ने कहा अभी तुम्हारे पास तुम्हारी पत्नी द्रौपदी है। यदि तुम इस बार जीत गए तो अब तक जो भी कुछ हारे हो, वह वापस हो जाएगा। युधिष्ठिर ने द्रौपदी को भी दाँव पर लगा दिया और वह द्रौपदी को भी हार गया।
द्रौपदी का अपमान
कौरवों की खुशी का ठिकाना न रहा। दुर्योधन के कहने पर दुशासन द्रौपदी के बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-भवन में ले आया। दुर्योधन ने कहा कि द्रौपदी अब हमारी दासी है। भीम द्रौपदी का अपमान न सह सका। उसने प्रतिज्ञा की कि दुशासन ने जिन हाथों से द्रौपदी के बाल खींचे हैं, मैं उन्हें उखाड़ फेंकूँगा। दुर्योधन अपनी जाँघ पर थपकियाँ देकर द्रौपदी को उस पर बैठने का इशारा करने लगा। भीम ने दुर्योधन की जाँघ तोड़ने की भी प्रतिज्ञा की। दुर्योधन के कहने पर दुशासन द्रौपदी के वस्त्र उतारने लगा। द्रौपदी को संकट की घड़ी में कृष्ण की याद आई। उसने श्रीकृष्ण से अपनी लाज बचाने की प्रार्थना की। सभा में एक चमत्कार हुआ। दुशासन जैसे-जैसे द्रौपदी का वस्त्र खींचता जाता वैसे-वैसे वस्त्र भी बढ़ता जाता। वस्त्र खींचते-खींचते दुशासन थककर बैठ गया। भीम ने प्रतिज्ञा की कि जब तक दुशासन की छाती चीरकर उसके गरम ख़ून से अपनी प्यास नहीं बुझाऊँगा तब तक इस संसार को छोड़कर पितृलोक को नहीं जाऊँगा। अंधे धृतराष्ट्र बैठे-बैठे सोच रहे थे कि जो कुछ हुआ, वह उनके कुल के संहार का कारण बनेगा। उन्होंने द्रौपदी को बुलाकर सांत्वना दी। युधिष्ठिर से दुर्योधन की धृष्टता को भूल जाने को कहा तथा उनका सब कुछ वापस कर दिया।
पुनः द्यूतक्रीड़ा तथा पांडवों को तेरह वर्ष का वनवास
दुर्योधन ने पांडवों को दोबारा जुआ खेलने के लिए बुलाया तथा इस बार शर्त रखी कि जो जुए में हारेगा, वह अपने भाइयों के साथ तेरह वर्ष वन में बिताएगा जिसमें अंतिम वर्ष अज्ञातवास होगा। इस बार भी दुर्योधन की ओर से शकुनि ने पासा फेंका तथा युधिष्ठिर को हरा दिया। शर्त के अनुसार युधिष्ठिर तेरह वर्ष वनवास जाने के लिए विवश हुए और राज्य भी उनके हाथ से जाता रहा।
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